Life - Nostalgia, Obsessions, Emotions, & all things that make us human
Saturday, September 27, 2014
Thursday, September 25, 2014
GO S SIP MASALA CHAI
GO S SIP Masala Chai
Wednesday, September 24, 2014
The grand arrival of the Television
There was a heated discussion going on at home, after all it was an important issue. It was an issue close to our hearts, a Television set. We (my mother, my brother and me) had our hearts set on watching the 1984 Los Angeles Olympics on a color TV set at home. After all our neighbors had one!
I could hear the movie songs and the dialogs and desperately wanted to have a TV set in our house. We lived in Bangalore, where - the people were quieter and calmer, unlike Delhi, where everyone spoke loudly and all at the same time.
I could hear the movie songs and the dialogs and desperately wanted to have a TV set in our house. We lived in Bangalore, where - the people were quieter and calmer, unlike Delhi, where everyone spoke loudly and all at the same time.
The grand arrival of the Television
There was a heated discussion going on at home, after all it was an important issue. It was an issue close to our hearts, a Television set. We (my mother, my brother and me) had our hearts set on watching the 1984 Los Angeles Olympics on a color TV set at home. After all our neighbors had one!
I could hear the movie songs and the dialogs and desperately wanted to have a TV set in our house. We lived in Bangalore, where - the people were quieter and calmer, unlike Delhi, where everyone spoke loudly and all at the same time.
I could hear the movie songs and the dialogs and desperately wanted to have a TV set in our house. We lived in Bangalore, where - the people were quieter and calmer, unlike Delhi, where everyone spoke loudly and all at the same time.
Tuesday, September 23, 2014
घर मे मेहमान
घर मे हालात कुछ गंभीर थे, आखिर घर मे टीवी आने की बात चल रही थी। इक किस्म की उत्सुकता थी, उत्साह था.. आखिर पड़ोसिओं के घर मे झांक झांक कर टीवी देखना आसान काम थोड़ी न होता है।
जब हम लोग देल्ही जाते थे तब हम सब कजिन मिलकर बरामदे की दीवारों के ऊपर से छलांग लगा कर, पड़ोसिओं के यहाँ लम्बी कतारों मे फस फस के बैठ कर चित्रहार देखा करते थे। याँ फिर, अगर किस्मत जाग उठे तो पूरी की पूरी पिक्चर देखने को मिल जाती थी. चाहे वो पिक्चर की कहानी समझ मे आये यह ना आये. चाहे पिक्चर का नामे अजीब सा क्यों ना हो जैसे के, "पतीता" “ दो फूल एक माली", "दो बूंद पानी"। एक पिक्चर मे नर्गिस नाम की अदाकारा अपने पति से दूर क्यों भाग रही थी? और फिर स्टेज के ऊपर चड़ के क्यों रो रो कर गाना गा रही थी? "मेरी टूटी हूई बीना कहे मुझे जीना, मेरी खो गयी पायल, मेरे गीत हैं घायल!” यह समझ मे नहीं आया पर फिर भी सब के साथ बैठ कर पूरी पिक्चर देखई ।
जब हम लोग देल्ही जाते थे तब हम सब कजिन मिलकर बरामदे की दीवारों के ऊपर से छलांग लगा कर, पड़ोसिओं के यहाँ लम्बी कतारों मे फस फस के बैठ कर चित्रहार देखा करते थे। याँ फिर, अगर किस्मत जाग उठे तो पूरी की पूरी पिक्चर देखने को मिल जाती थी. चाहे वो पिक्चर की कहानी समझ मे आये यह ना आये. चाहे पिक्चर का नामे अजीब सा क्यों ना हो जैसे के, "पतीता" “ दो फूल एक माली", "दो बूंद पानी"। एक पिक्चर मे नर्गिस नाम की अदाकारा अपने पति से दूर क्यों भाग रही थी? और फिर स्टेज के ऊपर चड़ के क्यों रो रो कर गाना गा रही थी? "मेरी टूटी हूई बीना कहे मुझे जीना, मेरी खो गयी पायल, मेरे गीत हैं घायल!” यह समझ मे नहीं आया पर फिर भी सब के साथ बैठ कर पूरी पिक्चर देखई ।
एक दौर ऐसा भी चला की मै पेंटिंग सीखने पापा के साथ, सरन आंटी के यहाँ जाती और वो हमे वही पर रोक लेतीं और केहतीं , “ खाना खाईये और टीवी की पिक्चर देख के जाइये.” तोह बहुत ही अच्छा लगता था.
खैर तब मार्केट मे TV के बहुत कम ब्रांड थे. अप्ट्रान टीवी का अड्वर्टाइज़्मेंट बार बार सुनाई देता था.... रेडियो पर...वॅट्स ऑन?? इट इस अप्ट्ारन ओर दूसरा था डाटोना टीवी. हुमारे घर मे विचार चल रहा था, कि कौनसा टीवी ले? ब्लाक्क आंड वाइट टीवी कि कलर टीवी? अप्ट्रान टीवी कि डायटोना टीवी? हम सब लोग टीवी सेट देखने दुकान पर गये, वहाँ पर सोनोडीन नाम का एक कलर टीवी सेट भी बिक रहा था. लेकिन टीवी बिना खरीदे ही घर आ गये। पापा की पसंद थी ब्लाक्क आण्ड वाइट टीवी, जब की मम्मी, मेरे भाई और मेरी पसन्द थी कलर टीवी। इरादा तो यही था कि हम लोग 1984 के ओलिमपिक्स टीवी पर देखेंगे और वो भी कलर मे देखेंगे. फिर एक पूरा हफ्ता घर मे वार्तलाब चलता रहा.. सोनोडीन कलर TV शायद RS 8000 का था और ब्लाक्क आंड वाइट का डायटोना था Rs 4000. मैने तो साफ साफ कह दीया था पापा से, कि अगर आप ब्लाक्क आंड वाइट टीवी लायेंगे तो मै तो टीवी ही नहीं देखूँगी। आखिर पापा ने हार मान ही ली और फिर हमारे घर मे मेहमान के रूप मे सोनोडीन टीवी पधारे.
पहले कुछ दिन तो सब कुछ देखा टीवी पर, न्यूज़ भी देखी, वो भी दो- दो बार, हिन्दी मे ओर अंग्रेज़ी मे। ओलिमपिक्स तो देखे ही... कारल लूईस के चार - चार मेडल और जिमनास्टिक्स. लेकिन तब आँखे फ़ाड़ फाड़ कर सब कुछ ही देखते थे हम सब।।। चाहे हो सीरियल जैसे कि .."हम लोग " याँ "येह जो है ज़िंदगी" यां फिर हर सनडे के सनडे "रजनी", "ऐसा भी होता है"। बच्चों का गली नुक्कड़ मे खेलना कम हो गया, खास कर के जब सनडे शाम को पिक्चर दिखाई जाती थी। कई बार समय की कमी के कारण पिक्चर को बीच मे से इधर-उधर काट देते थे। इसी मुद्दे पे मैने मिनिस्टर ऑफ इन्फर्मेशन आंड ब्रॉडकॅस्टिंग को चिट्ठी भी लिखी थी कि कम से कम पिक्चर को इक तरीके से काटें तां कि कहानी समझ मे आ सके। फिर ऐसा दौर भी चला कि हिन्दी की जगह कन्नदा पिक्चर दिखानी शूरू करदी गयी.. मुझे वो भी मंज़ूर था.. फिर नुक्कड़, बुनियाद, करमचंद, कथा सागर जैसे अनमोल सीरियल देखने को मिले..
टीवी का ऐसा भूत सवार हुआ लोगों पर, जल्द ही सब के घर मे टीवी आ गया। इसी दौरान लोगों का आपस मे मिलना-जुलना भी कम हो गया। वो अंकल आंटी जो अक्सर बच्चों को लेकर शाम को बिना बुलाये घर मिलने आ जाया करते थे... सब धीरे धीरे कम होने शुरू हो गया । जो रात को देर तक खेलते थे हम सब बच्चे.. छुट्टियों मे वो भी बन्द ही हो गया। आखिर टीवी सब की आदत बन चुका था। वहाँ जो सिलसिला शुरू हुआ टीवी का केवल एक दो channel के साथ... अब एक पूरा का पूरा राज्य बन गया है। सौ के ऊपर चैन्नल ओर टीवी शो, जब देखो, जो मरज़ी देखो.. ऊपर से नयी - नयी पिक्चर टीवी पर बार-बार देखने को मिलतीँ है, अब शायद लोगों का टीवी का नशा तोड़ा कम हो गया होगा.. क्यों कि पिक्चर तो फिर कभी और भी देखी जा सकती है ना?... और फिर इंटरनेट का तो जवाब ही नही...फसेबूक पर ज़िंदगी जीने लगे है लोग... दोस्तों को भी वहीं पर मिल लेते है लोग. बच्चे आज कल टीवी कम देखते है ...लेकिन XBOX ओर COMPUTER गेम में घुस जाते है... वही पर अपने दोस्तों से मुलाकातें भी कर लेतें हैं..
लेकिन रह रह कर बचपन का वो समा याद आता है, जब हमारे पास खेलने के लिये क़ुछ भी नही था.. फिर भी हम लोग मस्ती भरे खेल खयालों मे बुनकर खेला करते थे......
Monday, September 22, 2014
My best buddies
Text Message |
Gmail |
My new buddies are Gmail, Facebook and Text Message. I check on them ever so often, that by now I see them in my dreams, almost every day. There was a time when mornings started with prayers, the smell of incense sticks wafting in the air, as people bowed in reverence in front of their favorite deities.
Labels:garlic
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Sunday, September 21, 2014
The Purple plastic rose
The Purple plastic rose
Ah! Brazil…So many beautiful people! So many beautiful memories! Where do I begin??? And where do I end??? If futball can bring the world together in a utopia like atmosphere where everyone is in love with the game, where words are not important, where communication with intentions and body language and miming take over and it is a perfectly fine world.
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